आपने पुरानी हिंदी फिल्मों में वो सीन तो ज़रूर देखा होगा जिसमें गवाह को गीता के ऊपर हाथ रखकर कसम खाने को कहा जाता था कि, “मैं जो कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवा कुछ नही कहूँगा।”
ठीक इसी तरह हमारी अदालतों में गीता, कुरान और बाइबिल जैसे धार्मिक ग्रंथों को रखा जाता था। इसका उपयोग चश्मदीद गवाहों के धर्म के अनुसार शपथ दिलाने के लिए किया जाता था। यानी अगर गवाह हिन्दू हो तो गीता और मुस्लिम हो तो कुरान। लेकिन आज के समय अदालत में ऐसा नही किया जाता।
इसकी शुरुआत कैसे हुई
भारत में मुगल शासकों ने इस प्रथा को शुरू किया था। उस समय मुगल बादशाह न्याय करते वक़्त गवाहों से बयान सुनने से पहले धार्मिक ग्रंथों की कसम खाने को कहते थे। मुगलों ने धार्मिक ग्रंथों को इसलिए चुना क्योंकि वे जानते थे कि उनकी प्रजा का झुकाव धर्म के प्रति ज्यादा था। जनता धार्मिक किताब का अपमान करते हुए कभी झूठ नही बोलेंगे।
मुगलों के बाद जब अंग्रेजों ने भारत में शासन करना शुरू किया और यहाँ न्याय व्यवस्था बनाने में लगे तब उन्होंने भी इस प्रथा के लॉजिक और फंडे को अपना लिया। उन्हें भी लगा कि कोई भी व्यक्ति धर्म ग्रंथ की शपथ लेने के बाद सच ही बोलेगा।
अंग्रेजों ने मुगलों की शपथ प्रथा को अधिनियम में बदल दिया
भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजी हुकूमत हर चीज़ के लिए नियम बनाया करती थी। उन्होंने अदालत में शपथ लेने के लिए भारतीय शपथ अधिनियम 1873 (Indian Oaths Act 1873) लाकर सभी अदालतों में लागू कर दिया। भारत की आज़ादी के बाद भी धार्मिक ग्रंथों में हाथ रखकर शपथ लेना जारी रहा।
क्यों और कब शपथ लेने के अभ्यास में हुआ परिवर्तन
1969 में लॉ कमीशन ने अपनी अट्ठाइसवीं लॉ रिपोर्ट में 1873 के शपथ अधिनियम में बदलाव करने के और कुछ जोड़ने के सुझाव दिए। लॉ कमीशन के सुझाव पर गौर करने के बाद शपथ अधिनियम 1969 आया जो वर्तमान में भी लागू है।
शपथ अधिनियम में बदलाव का प्रमुख कारण था सिस्टम को धर्मनिरपेक्ष बनाना। पहले लोग अपने धर्म के अनुसार शपथ लेते थे लेकिन अब एक ही तरीके से कसम खाते हैं। अब अदालत में शपथ लेने के लिए कहा जाता है, “मैं ईश्वर को साक्षी मानकर कसम खाता हूँ कि जो कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवाय कुछ नही कहूँगा।”
क्या आपको पता है कि कोर्ट में अगर 12 साल या उससे कम उम्र का बच्चा आता है तो उससे शपथ नही लिया जाता।