साड़ियों का इतिहास थोड़ा बहुत सभी जानते है. स्पष्ट रूप से शायद ही कोई जानता हो. साड़ी फैशन का चलन है पर इसकी शुरुआत एक सीधे सरल ढंग से हुई थी, साड़ी पहनने के चलन के साक्ष्य सिंधु सभ्यता के काल से भी मिले.
कैसे हुई शुरुआत
भारत के सबकॉन्टिनेंट में जब कपास की खेती शुरू हुई बस तभी से साड़ी का सफर भी शुरू हुआ था, उस समय साड़ी को नील से (इंडिगो) रेड माद्देरे और हल्दी से रंगा जाता था ताकि महिला की नम्रता को छुपाया जा सके. साड़ी का सबसे पहला नाम ‘सात्तिका’ था जिसकी चर्चा बुद्ध और जैन ग्रंथो में हुई है और जिसका अर्थ है ‘महिलाओं की पोशाक’. साड़ी को तीन भागो में बांटा गया अंतरिया, उत्तरीय, और साड़ी. 6 सेंचुरी बी.सी में बुद्धिस्ट पाली लिट्रेचर में भी इसका ज़िक्र है.
महिलाओं ने कई तरह की साड़ियाँ पहनी जिनमे मुख्यतः बनारसी, कांचीपुरम, गढ़वाल, पैठानी, मैसोर, भागलपुरी, बालचुरी, माहेश्वरी, चंदेरी, माखेला, नारायण आदि, इनके अलावा टाई डाई, ब्लॉक प्रिंट, एम्ब्रोइडरी जैसी भी थीं.
जैसे जैसे भारत में अंग्रेज़ो का आना बढ़ता गया वैसे वैसे भारत की जो उच्च घराने की महिलाएं थी उन्होंने कर्मचारियों से, साड़ी बनाने वालो से, महंगे नग कि कारीगरी करने का आदेश देने लगीं और सोने के धागे से कढ़ाई का भी आदेश जारी हुआ ताकि उनकी पोषाक उन्हें सबसे अलग और बेहतरीन साबित हो. उस समय इंसान के लिए उसकी पोशाक उसकी हैसियत बताती थी और पहनावा लोगो के लिए बहुत मायने रखता था.
जैसे जैसे भारत में अंग्रेजो का शासन बढ़ता जा रहा था और देश में प्रदेश में अँग्रेज़ फैक्टरियां बिछा रहे थे, लोगो की पोशाक में, रहन सहन में काफी बदलाव आने लगे थे, अँग्रेज़ फैक्ट्रीज़ के साथ सिंथेटिक रंग भी लेकर आये. अब स्थानीय लोगो ने भी बहार के देशो से रंग मंगवाने शुरू कर दिए थे, जिसके साथ साथ नइ टेक्निक्स, प्रिंटिंग के नए नए तरीके, कपड़ा रंगने की नयी तकनीक भारत में आ चुकी थी, जिसने साड़ी की काया पलट कर दी थी, और ऐसा रूप साड़ी का निकल कर आया जो कभी किसी ने सोचा नहीं था.
साड़ी का दुनिया पर ऐसा प्रभाव पड़ा की वह अब पहला इंटरनेशनल इंडियन गारमेंट बन चुका है, जो पोशाक पहले सिर्फ ज़रुरत के लिए बनायीं गयी थी वह अब भारतीय महिला की पहचान बन चुकी है