उन्होंने कहा “कि अगर तुम अपने लिए एक सरल नाम लेकर आती हो तो यह जॉब आपकी” दमयंती ने सरलता और फुर्ती से जवाब देते हुए कहा ‘रानी’।
जहाँ दुनिया भर में पितृसत्ता थी वहां एक महिला का यूँ दुनियाभर में अपना नाम बनाना अपने आप में एक चुनौती थी। ब्रिटिश इंडिया के एक छोटे से शहर में 10 मई 1942 में एक परिवार में जन्मी दमयंती गुप्ता ने दुनिया भर में नाम कमाया। भारत के विभाजन से पूरी दुनिया वाकिफ है, भारत का विभाजन दुनिया के सबसे ज़्यादा खुनी विभाजनों में से एक है। 1947 में भारत में जहाँ ख़ुशी का माहौल था वहीँ जनता में पार्टीशन का आक्रोश भी था, अंग्रेजो ने आखिरकार 200 साल बाद भारत छोड़ दिया था लेकिन साथ ही साथ माथे पर विभाजन का थप्पा भी लगा दिया था।
जहाँ दमयंती अपने परिवार के साथ रहती थी वह इलाका पाकिस्तान में आता था जिस कारण उन्हें रातो रात अपना घर बार छोड़ कर जाना पड़ा, हर जगह खून खराबा था, भारत हो या पाकिस्तान कहीं भी रहना दुश्वार था. दमयंती एक जाने माने परिवार से थी, उनके माता पिता काफी नामचीन ज़मींदार थे, उन्हे विभाजन के चलते रातो रात धन सम्पत्ति छोड़ कर जाना पड़ा.दमयंती की माँ का नाम गोपीबाई हिंगोरानी था, इन्होने सिर्फ अपनी प्राथमिक शिक्षा ही हांसिल करी थी, उन्होंने अपनी बेटी दमयंती को यह शिक्षा दी की तुम अपनी ज़िंदगी में कुछ ऐसा कमाओ जो कभी कोई छीन न पाए जो की है शिक्षा।
जब दमयंती 19 वर्ष की थी तब तक उन्हें इंजीनियरिंग के बारे में कुछ नहीं पता था। यह उस दिन की बात है जब पंडित ज्वाहरलाल नेहरू उनके शहर में आये थे, उन्होंने अपने भाषण में यह कहा कि “भारत 200 साल बाद आज़ाद हुआ है, और हमारे देश को इंडस्ट्री और इंजीनियर की बेहद्द ज़रुरत है, और यह बात मैं सिर्फ लड़को से ही नहीं लड़किओं से भी बोल रहा हूँ। इसके बाद दमयंती तुरंत अपनी माँ के पास जाकर कहतीं है कि एक दिन मै इंजीनियर बनूँगी।
दमयंती वह पहली महिला थी जिन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री हांसिल करी, यह वो समय था जब लड़किओं का प्राथमिक शिक्षा लेना भी छोटी बात नहीं थीं, वहां एक महिला का इंजीनियरिंग करना पहाड़ चढ़ने से कम नहीं था जब दमयंती ने एडमिशन लिया तब उन्हें कोई अंदाज़ा नहीं था कि कैसा माहौल होगा कैसी स्थिति होगी, उस कॉलेज में महिलाओं के लिए सौच की व्यवस्था नहीं थी, जब वहां के प्रिंसिपल को यह पता चला कि दमयंती अपने इरादों कि पक्की है तब उसने वह महिलाओं के लिए अलग से सौच कि व्यवस्था करी।
मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करके दमयंती डुसेलडॉर्फ, जर्मनी में काम करने के लिए रवाना हुईं। भारत से जर्मनी के सफर में आधी रात में ट्रैन से उतरने के लिए कहा गया क्यूंकि उनपर बेल्जियम के लिए ट्रांजिट वीज़ा नहीं था, दमयंती ने उस स्टेशन पर सुबह तक इंतज़ार किया और ब्रुसेल्स क लिए ट्रैन पकड़ी ताकि वीज़ा ले सकें।
जनवरी 1966 तक उन्होंने जर्मनी में काम किया, उसके बाद उन्होंने अपनी मास्टर्स की डिग्री न्यू यॉर्क में स्थित ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी से करी, वहां भी दमयंती मास्टर्स इन इंजीनियरिंग करने वाली पहली महिला बनीं, अब उन्हें अपनी मंज़िल साफ़ नज़र आ रही थी, अपने सपने की सीधी ट्रेन उन्होंने पकड़ी डेअर्बोर्न, मिशिगन के लिए।
जब दमयंती 19 वर्ष की थीं उन्होंने फोर्ड के मालिक हेनरी फोर्ड की बायोग्राफी पढ़ी और उनसे प्रेरित होकर दमयंती ने ठान लिया था के एक दिन वह फोर्ड में काम करेंगी, दमयंती को उनके घरवालों का पूरा सपोर्ट था, उनकी माँ का मान ना था की यदि उन्होंने अपने एक बच्चे को अच्छी शिक्षा देकर अचे पद्द पर बैठा दिया तो बाकि घरवालों का और भाई बहनो का भविष्य भी सुधर जायेगा, और धीर धीरे ऐसा हुआ भी, दमयंती ने समय के साथ अपने बाकि घरवालों को भी अमेरिका बुला लिया।
दमयंती का पहला इंटरव्यू फोर्ड में सफल नहीं रहा किन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी, संयम से काम लेते हुए उन्होंने अपनी गलतियों को पहचाना और सुधार भी किया। कुछ महीनो बाद उन्होंने फिर प्रयास किया, जब दमयंती इंटरव्यू के लिए पहुंची तब एच.आर असमंजस में था, हाथ में रिज्यूमे लिए एच.आर ने पूछा “तुम यहाँ इंजीनियरिंग की जॉब के लिए आयी हो किन्तु हमारे यहाँ कोई महिला काम नहीं करती,”दमयंती ने सरलता से जवाब देते हुए कहा “कि मै यहाँ हूँ, आप जब तक मुझे हायर नहीं करोगे तब तक आपके पास कोई महिला कर्मी होगी भी नहीं”।
एच.आर के लिए दमयंती का नाम कठिन था उन्होंने कहा “यदि तुम अपने लिए एक सरल नाम लाती हो तो यह जॉब तुम्हारी” दमयंती ने उत्तर में “रानी” कहा. कुछ इस तरह अपने रास्तो कि कठिनाइयों से लड़ते झुझते हुए दमयंती ने अपने बचपन का सपना साकार किया, इस तरह दमयंती फोर्ड में हायर होने वाली पहली महिला बनीं।