रुस और यूक्रेन के बीच जारी इस जंग में हालात बद से बद्तर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि युद्धग्रस्त यूक्रेन में फंसे भारतियों को भी इस संकट का सामना करना पड़ रहा है। लोग जान बचाकर पोलैंड और हंगरी जैसे देशों में शरण लेने को मजबूर हैं।
लेकिन एक समय ऐसा भी था जब पोलैंड के नागरिकों को भारत ने बिना किसी शर्त के अपने देश में शरण दी थी। यह बात उस वक्त की है जब भारत रियासतों में बंटा हुआ था और अंग्रेजों का गुलाम था।
जब भारत गुलामी के उस दौर से जूझ रहा था उस वक्त द्वितीय विश्वयुद्ध की मार झेल रही थी। हिटलर और स्टालीन जैसे तानाशाहों का आतंक चरम पर था, वे किसी भी कीमत पर पश्चिमी देशों पर कब्ज़ा करना चाहते थे।
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हमले में अनाथ हुए थे बच्चे
इसी मंशा के तहत साल 1939 में जर्मनी ने पौलेंड पर हमला कर दिया था। इस हमले में हिटलर का साथ सोवियत रुस के तानाशाह स्टालिन ने दिया था जिसका नतीजा ये रहा कि जर्मनी पर दोनों देशों ने अपना आदिपत्य जमा लिया था। उस दौरान लाखों लोग इस नरसंहार में मारे गए थे और जो बच गए उन्हें कैंप में रहने के लिए मजबूर कर दिया गया। इनमें बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब शामिल थे। हज़ारों बच्चों को अपने माता-पिता से जुदा होना पड़ा था, वे पूरी तरह से अनाथ हो चुके थे। कई महीनों तक इन बच्चों को कैंप में अपना जीवन गुजारना पड़ा।
हालांकि, 1941 में सोवियत रुस ने इन अनाथों से कैंप में रहने का भी हक छीन लिया। इन्हें पूरी तरह से बेघर कर दिया जिसके बाद बड़ी संख्या में बच्चों ने मेक्सिको और न्यूजीलैंड की तरफ रुख किया।
नवानगर के राजा ने दी पनाह
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पौलेंड में उत्पन्न हुई इन परिस्थितियों पर ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट में चर्चाएं ज़ोरों पर थीं। इस बीच सोवियत रुस के इस फरमान ने गहमागहमी और बढ़ा दी। अब प्रश्न ये था कि इन अनाथ बच्चों को पनाह देता कौन? संकट की उस घड़ी में आगे आए राजा दिग्विजय सिंह।
उन दिनों आज के जामनगर को नवानगर के नाम से जाना जाता था। जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट का हिस्सा थे। उन्होंने बड़ा दिल दिखाते हुए इन बच्चों को अपनी रियासत में आश्रय देने का प्रस्ताव पेश किया। उनके इस प्रस्ताव को ब्रिटिश सरकार ने पारित कर दिया जिसके बाद ट्रकों के माध्यम से इन बच्चों को तुर्कमेनिस्तान के अशगबात से भारत लाया गया।
राजा ने किया रहने-खाने का इंतज़ाम
जानकारों के मुताबिक, साल 1942 में हज़ारों की संख्या में बच्चों को भारत लाया गया था। इन सभी को नवानगर के बालाचड़ी गांव में रखा गया था। यहां राजा दिग्विजय सिंह ने इन बच्चों के रहने-खाने से लेकर पढ़ने-लिखने तक का प्रबंध किया था। इसके अलावा इनमें कुछ बच्चों को फुटबॉल खेलने का शौक था उनके इस टैलेंट को निखारने के उद्देश्य से राजा ने बालाचड़ी में एक फुटबॉल मैदान तैयार करवाया था और एक कोच को भी नियुक्त किया गया था।
इतना ही नहीं राजा ने इन सभी बच्चों के लिए एक लाइब्रेरी का भी निर्माण करवाया था।
साल 1945 में जब द्वितीय विश्युद्ध समाप्त हुआ तो पोलैंड सोवियत यूनियन के खेमे में शामिल हो गया जिसके बाद साल 1946 में पोलिश सरकार ने राजा दिग्विजय सिंह पर इन बच्चों को वापिस उनके देश भेजने के लिए दवाब बनाया। पहले तो राजा ने आनाकानी की लेकिन फिर मान गए।
अपने नाम पर पौलेंड में चाहते थे सड़क
कहा जाता है कि जब इन बच्चों को ट्रकों में भरकर वापिस ले जाया जा रहा था तब राजा दिग्विजय सिंह ने पोलिश जनरल व्लादस्ला सिकोर्स्की से आग्रह किया कि उनके नाम पर पौलेंड में एक रास्ते का निर्माण किया जाए। उनकी इस मांग को पोलिश सरकार ने ठुकरा दिया।
1966 में हुआ था राजा का निधन
खैर, धीरे-धीरे साल बीतते गए और पोलैंड सोवियत यूनियन से अलग हो गया। साल 1989 में पोलैंड की सरकार ने राजधानी वॉरसॉ में जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के नाम पर एक चौक का निर्माण कराया। हालांकि, इसे देखने के लिए राजा जीवित नहीं थे। साल 1966 में उनका देहांत हो गया था।
इसके बाद साल 2012 में एक बार फिर वॉरसॉ में एक पार्क का नाम राजा दिग्विजय सिंह के नाम पर रखा गया। इसके अलावा मरणोपरांत राजा को पोलैंड के सर्वोच्च सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ द ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाज़ा गया।
100 वर्ष बाद लौटे बच्चे
गौरतलब है, साल 2018 में पोलैंड की स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूर्ण होने पर इन बच्चों में जीवित कुछ लोग अपने संघर्ष के दिनों की यादों को ताज़ा करने के लिए भारत पहुंचे थे। इस दौरान उन्होंने बालाचड़ी स्थित लाइब्रेरी का भी दौरा किया था जिसे देखकर वे भावुक हो गए थे।
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