उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का शोर अब समाप्त हो चुका है। नतीजे देश की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के पक्ष में आए हैं। 403 सीटों में से 273 सीटें जीतकर भाजपा ने प्रचंड बहुमत हांसिल की है। वहीं, समाजवादी पार्टी को 125 सीटें ही मिलीं जिसका नतीजा ये रहा कि अखिलेश एक बार फिर सीएम बनने से चूक गए।
चुनावी नतीजों की यदि बात करें तो बीजेपी के प्रत्याशियों ने भारी मार्जिन से सपा के उम्मीदवारों को धूल चटाई है। लेकिन अब प्रश्न ये उठ रहा है कि चुनाव प्रचार के दौरान जीत का दम भरने वाले अखिलेश कहां फेल हुए? ऐसे क्या कारण रहे कि जिनकी वजह से जो बयार शुरुआत में सपा के पक्ष में थी अंत तक आते-आते बीजेपी के पक्ष में बहने लगी?
आज हम आपके सामने उन बिंदुओं को उकेरने वाले हैं जिनकी वजह से अखिलेश की साईकिल रफ्तार पकड़ने के बावजूद मंजिल तक नहीं पहुंच सकी।
विवादित बयानबाजी
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का जिन्नाह को लेकर दिया गया बयान तो आपको याद ही होगा जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों की तुलना पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री मोहम्मद अली जिन्नाह से करी थी। उस दौरान बीजेपी ने उनके इस बयान का काफी फायदा उठाया था। अखिलेश के इस बयान के बाद यूपी चुनाव में पाकिस्तान की एंट्री हो गई थी। इस बात से तो आप सब वाकिफ ही हैं पाकिस्तान का नाम आते ही दो समुदायों में झड़प होना लाज़मी है। इसका नतीजा ये रहा कि चुनाव समुदाय विशेष पर केंद्रित होने लगा था।
पार्टी विशेष के लोगों को धमकाना
समाज के हर एक वर्ग को साथ लेकर चलने का दावा करने वाले अखिलेश यादव चुनाव नजदीक आते-आते हिंसात्मक प्रवृत्ति की बातें करने लगे थे। उन्हें चुनावी नतीजों से पहले ही यह महसूस होने लगा था कि वे सीएम बन गए हैं। कई बार रैलियों में अखिलेश के मुंह से इस तरह के बयान सुने गए जिनमें वे कहते नज़र आए कि हमने भी सूची तैयार कर रखी है, सरकार बनने के बाद हिसाब-किताब होगा। इस तरह के धमकी भरे बयानों ने प्रदेश की जनता के दिल में कहीं न डर का माहौल पैदा किया।
छवि सुधारने में नाकाम रहे अखिलेश
साल 2012 में यूपी की जनता ने अखिलेश को इस उम्मीद से मुख्यमंत्री बनाया था कि वे समाजवादी पार्टी की छवि को सुधारने का काम करेंगे। वे युवा हैं उनकी अपनी सोंच हैं इसलिए मुलायम सिंह के राज में फैली गुंडई को कहीं न कहीं वे साफ करेंगे। लेकिन अखिलेश के कार्यकाल में प्रदेश की जनता ने दंगों के दंश को झेला। अखिलेश की सरकार में हुआ मुजफ्फरनगर दंगा, कैराना पलायन आदि ने उनकी छवि को पूरी तरह से मिट्टी में मिला दिया जिसका नतीजा ये रहा कि साल 2017 में पार्टी को सत्ता के शिखर से उखाड़ फेंका गया। हालांकि, इस बार सपा की लहर बनती दिख रही थी लेकिन जाति विशेष द्वारा दिए जा रहे हिंसात्मक बयानों ने जनता के पुराने जख्मों को कुरेत दिया जिसका नतीजा ये रहा कि जनता-जनार्दन ने कानून के राज को चुना।
पुलिसवालों को लेकर ऊल-जलूल टिप्पणी
आपने अखिलेश यादव की उस वीडियो क्लिप को देखा ही होगा जिसमें वे पुलिस वालों को धमकाते नज़र आ रहे थे। प्रदेश के सशक्त जवानों को पुलिस….ऐ पुलिसवालों…..कहकर किसी गुंडे-मवाली की तरह संबोधित करना कतई भी न्यायसंगत नहीं होता है और वही हुआ। बीजेपी ने उनके इस तरह के बयानों को उनके ही खिलाफ यूज़ करना शुरु कर दिया। भाजपा जनता के दिमाग में ये भरने में कामयाब हुई कि अगर सपा सत्ता में आती है तो प्रदेश में एक बार फिर गुंडाराज और माफियाराज कायम हो जाएगा।
गौरतलब है, विधानसभा चुनाव में अखिलेश की हार के कारण तो तमाम हैं लेकिन उन कारणों में उपर दिए गए कारण ज्यादा प्रबल हैं। इनसे समझ आता है कि सपा सुप्रीमो की राजनीतिक समझ कितनी है। यदि वे राजनीति के चाणक्य होते तो मुख्यमंत्री योगी के खिलाफ टिप्पणी करने के बजाए मुद्दों पर बात करते। लेकिन उन्होंने बुलडोजर बाबा और चिलमजीवी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके यूपी जनता का दिल तोड़ दिया जिसका परिणाम ये रहा कि अब एक बार फिर वे पांच सालों के लिए बाहर हो गए।
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